पिंजरे की बुलबुल छोटी सी बुलबुल लाड़ली सबकी, अब पिंजरे में नहीं, छोटे से लकड़ी के घर में रहती है, खुला है आसमान उसके पास, फिर क्यों बंधन में रहते है, रोज सुबह दाना-पानी समय से उसको मिलता है, और इना, मीना, और उसकी माँ से प्यार भी तो बहुत मिलता है, सोचती है कहीं और जाकर न मिला खाना और ठिकाना, तो व्यर्थ ही आज़ादी का दम्भ भरूंगी, तकलीफ ही क्या है यहां मुझको, जो यहां से दूर उड़ूँगी, बिन पिंजरे के भी वह पिंजरे की बुलबुल बन जाती है, और हैं पंख उसके भी यह तो भूल ही जाती है...
.. माटी का वैभव प्रबल है नियति का खेल , अगोचर कर्म की धारा , रहना है सचेत , और गुदड़ी के लाल को भी है जानना , कहते हैं सूर्य रेखा से होते हैं सम्पन्न , पर पुत्र उन्हीं का रहा आजन्म खिन्न , बहुत दूर लगती है प्रसन्नता , नहीं भाती कभी कभी तो भव्यता , जैसे थी उर्मिला के लिए अयोध्या , ऐसे नहीं भाती पिया बिना बिछौने की कोमलता , अर्थ कीर्ति का लोभ है भैरव , लेकिन फिर भी सब है माटी का वैभव। आभार रिद्धिमा १८-०७-२०२१
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